Sunday, July 6, 2025
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महुआ डाबर नरसंहार: पांच हजार भारतीयों की हत्या, गांव मिटा दिया नक्शे से, पर इतिहास की चीखें अब भी जिंदा हैं

बस्ती। भारत के स्वतंत्रता संग्राम की एक ऐसी विभीषिका, जिसके जख्म आज भी इतिहास के सीने में रिसते हैं, वो है महुआ डाबर नरसंहार। अंग्रेजों की क्रूरता ने करीब 5000 निर्दोष भारतीयों की जान ले ली और पूरे गांव को ऐसा मिटा दिया कि उसका नाम तक नक्शे से गायब कर दिया गया। लेकिन इतिहास की परतों में छुपी ये दास्तां एक बार फिर सामने आ रही है।

3 जुलाई 1857—आज से ठीक 168 साल पहले, अंग्रेजी हुकूमत ने बस्ती जनपद के बहादुरपुर ब्लॉक के महुआ डाबर गांव को घुड़सवार फौजों के साथ तीन तरफ से घेर लिया। बूढ़े, बच्चे, औरतें—किसी को नहीं बख्शा। गोलियों से छलनी कर, तलवारों से टुकड़े-टुकड़े कर, फिर पूरे गांव को आग के हवाले कर दिया। घर, दुकानें, बुनकरों के करघे, मस्जिदें सब राख कर डाले।

इतना ही नहीं, अंग्रेजों ने इस गांव को ‘गैर चिरागी’ (हमेशा के लिए उजाड़) घोषित कर नक्शों से मिटा दिया। पर गांव से सटी मनोरमा नदी आज भी इस कत्लेआम की मूक साक्षी है।

विद्रोह की चिंगारी और अंग्रेजों का कहर

1857 की क्रांति मेरठ से उठी और देशभर में आग की तरह फैल गई। गोरखपुर-बस्ती इलाके में तैनात 17वीं नेटिव इन्फैंट्री के सिपाही भी बगावत पर उतर आए। फैजाबाद में अंग्रेजों पर धावा बोला गया। विद्रोहियों ने अंग्रेज अधिकारियों को घाघरा नदी के किनारे घेरकर मार गिराया।

अंग्रेजी अफसर भागते-छिपते महुआ डाबर के पास पहुंचे, जो उस दौर में छींट कपड़ा उद्योग का एक बड़ा अंतरराष्ट्रीय केंद्र था। वहां के वीरों—गुलाब खां, अमीर खां, पिरई खां, वज़ीर खां, जफर अली और उनके साथियों—ने उन पर गुरिल्ला हमला बोल दिया। कई अंग्रेज अफसर मारे गए।

ब्रिटिश सरकार तिलमिला उठी। बस्ती पर मार्शल लॉ लगा और 3 जुलाई 1857 को महुआ डाबर को पूरी तरह घेर कर जला दिया गया। जो बच गए, उनके सिर कलम कर दिए गए। संपत्ति जब्त कर ली गई। गांव को ऐसा मिटा दिया गया मानो कभी था ही नहीं।

50 किलोमीटर दूर बसाया गया ‘नया’ महुआ डाबर

इतिहास को धोखा देने के लिए अंग्रेजों ने असली महुआ डाबर को उजाड़ कर करीब 50 किलोमीटर दूर बस्ती-गोंडा सीमा पर गौर के पास दूसरा महुआ डाबर गांव बसाया। बस्ती गजेटियर (1907) में भी वही नया गांव महुआ डाबर बताकर असलियत को दबा दिया गया। सवाल उठता है कि अगर असली महुआ डाबर ‘गैर चिरागी’ था, तो उसमें कोई कैसे बस सकता था?

इतिहास की गवाही खुदाई ने दी

1999 में स्थापित महुआ डाबर संग्रहालय के प्रयासों से सच्चाई फिर बाहर आई। जून-जुलाई 2010 में लखनऊ विश्वविद्यालय के पुरातत्व विभाग की खुदाई में वहां लाखौरी ईंट की दीवारें, कुएं, जली लकड़ी, राख, बर्तन, औजार, फूलदान, प्राचीन सिक्के और अभ्रक जैसे साक्ष्य मिले, जो बताते हैं कि वहां कभी एक समृद्ध बस्ती थी।

अब तक चुप्पी, न अफसोस, न माफी

डॉ. शाह आलम राना, महुआ डाबर संग्रहालय के महानिदेशक और क्रांतिकारी वंशज, बताते हैं कि महुआ डाबर का नरसंहार जालियांवाला बाग से कहीं बड़ा था, लेकिन ब्रिटेन या भारत किसी ने इस पर अफसोस तक जाहिर नहीं किया। जालियांवाला बाग पर जहां महारानी एलिज़ाबेथ (1997), ब्रिटिश प्रधानमंत्री डेविड कैमरन (2013) और टेरेसा मे (2019) ने माफी या अफसोस जताया, वहीं महुआ डाबर की त्रासदी पर आज तक खामोशी छाई है।

2022 में उत्तर प्रदेश सरकार ने इसे स्वतंत्रता संग्राम सर्किट में शामिल कर ऐतिहासिक न्याय की एक छोटी सी कोशिश जरूर की है। 10 जून 2025 से महुआ डाबर के शहीदों को प्रशासनिक स्तर पर शस्त्र सलामी भी दी जाने लगी है।

पर सवाल वही है—क्या पांच हजार लोगों की मिटाई गई बस्ती, उनके लहू से सनी ज़मीन को कभी राष्ट्रीय स्मारक का दर्जा मिलेगा? या महुआ डाबर की चीखें इतिहास की राख में ही दबी रहेंगी?

 

 

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