Saturday, July 26, 2025
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इस मस्ती भरे और रंगारंग होली में शामिल होकर आपसी भेदभाव भुलाकर एक-दूसरे के कपोलों पर स्नेह से गुलाल मलें: सुरेश सिंह बैस “शाश्वत”

होली भारतीय संस्कृति की महानतम प्रतीक है। प्राचीन सभ्यता के साथ इसका चोली दामन का साथ है। रंगों के मस्ती भरे इस पर्व से हर प्राणी का ह्रदय उल्लसित और स्फूरित हो उठता है। यह त्यौहार आता है फागुन माह में ।और फागुन है फूलों का फलों का ,रंग रंग के फूल हैं गुलाब है चमेली है चंपा है व अन्यान्य फूलों के सुगंधित वातावरण से मन और उल्लसित और प्रफुल्लित हो उठता है। खेतों में लहलहाते सरसों व उसके तन पर पीले पीले फूलों की सर्वत्र पीली सी छाई हुई चादर मानो धरती पर फैल गई हो ।वैसे ही पलाश के केसरिया फूल जंगलों में यत्र तत्र सर्वत्र छाए रहते हैं। लगता है जैसे जंगल में अंगारों की आग सी लग गई हो। जंगल में भी मंगल इनके रंगों की छटा सी बिखर जाती है धरती पर। इसी समय पेड़ों के पुराने पत्ते झरकर नवांकुरों के नवजीवन का संदेश देते हुए प्रकृति के परिवर्तन के नियम पुनः परंपरा अनुसार दोहराते हुए नजारे प्रस्तुत करते हैं। चारों तरफ फैली हरियाली से लगता है जैसे प्रकृति स्वयं सजीव होकर हमें लुभा रही हो। पुष्पों पर भ्रमर की गुंजन, कोकिला की मीठी कुहू कुहू की कूक मन को सम्मोहित कर देती है। स्वार्गिक वातावरण में मनाए जाने वाली होली हमें अवसर प्रदान करती है गले मिलने की स्नेहा भाव से मिलजुल कर रहने की। पुराने बैर भाव एवं भेदभाव को मिटाने की। और यहां तक कि कतिपय संकल्प लेने की भी। कहने को तो होली पर गंदगी साफ की जाती है। और कूड़ा करकट इकट्ठा करके जला दिया जाता है। मान्यता यह भी है कि इसी के साथ साथ ईर्ष्या, द्वेष, घृणा, कलह, भेदभाव आदि को भी जला दिया जाता है। तथा लोगों का मन शुद्ध, कोमल, निर्मल एवं निर्विकार हो जाता है। यदि सचमुच ऐसा हुआ होता तो इस धरती पर प्रहलाद की सी मानसिकता होती ना कि हिरण्यकश्यप का उत्पीड़न,?आज हम देखते हैं कि अखबारों के पन्ने खून से रंगे होली का क्रंदन करती सुर्खियों को छापने के लिए मजबूर हैं! जिसमें लिखा होता है रंगों के स्थान पर खून की होली खेली गई। लेकिन जिन लोगों पर मानव द्वारा खूनी पिचकारिओं से गर्म रंग डाला गया। वे अपने घर नहीं जा सके। क्योंकि उन्हीं के सुर्ख गुलाल ने उन्हें शांत और ठंडा कर दिया था। मानव की यह दानवीयता हिरण्यकश्यप की याद दिलाती है। वहीं कुछ लोगों की यह भी धारणा होती है कि वह इस दिन पूर्ण रूप से स्वतंत्र हैं। यानी फूहड़ मजाक करना, कीचड़ फेंकना शराब पीना, गाली गलोज करना, अश्लील छींटाकशी के अलावा अश्लील हरकतें कर अपनी असभ्य प्रवृत्ति का प्रदर्शन करना, अब आम बात हो गई है। हुड़दंग और गुंडागर्दी जैसे माहौल में किसका जी चाहेगा होली खेलने का। यह प्रतिक्रिया प्रायः आम जनों की एवं महिलाओं की रहती है। यही कारण है कि लोग आज होली खेलने से कतराने लगे हैं। छेड़छाड़ व गुंडागर्दी के आतंक के साए में इस पर्व का लुत्फ उठाने का अभाव सा रहता है। कुछ लोग तो होली के उत्सव में भाग न ले कर इस में होने वाले उदंडता मात्र को ही देखकर सहम जाते हैं। ऐसे सहमें एवं डरे हुए लोगों को जबरदस्ती घर से निकाल कर होली खिलाना कहां तक उचित है। हो सकता है कि वह किसी हुड़दंग के हादसे से गुजर चुके हों। या किसी मानसिक अशांति के कारण ना खेलना चाहते हों। ऐसे में उनके साथ जबरदस्ती करना उत्सव के मजे को किरकिरा ही करता है। यह भी अक्सर देखा गया है कि लोग रंग डालने के अवसर के ताक में रहते हैं कि अमुक व्यक्ति पर रंग डाल कर भाग लिया जाए। ताकि सामने वाला उस पर रंग ना लगा सके। उस समय वे यह भी नहीं देख पाते कि सामने वाला कोई महत्वपूर्ण कार्य निपटा रहा है या होली खेलने की स्थिति या मूड में है कि नहीं। इससे कटुता भी उत्पन्न हो जाती है। होली पर अच्छे रुचि के रंगों का चुनाव भी करना चाहिए। जैसे काले, बैगनी, पक्के रंगों का चुनाव आपकी खराब रूचि का परिचय देते हैं। साथ ही जिस पर वे रंग लगाए जाते हैं वह प्रसन्नता का अनुभव नहीं करते हैं। इससे प्रेम संबंधों में दरार पड़ सकती है। यदि रंग महिला पर लगा रहे हो तो पूरी शालीनता का परिचय देते हुए रंग लगाएं। उचित यही है कि रंग डालिए हंसिए खिलखिलाईए। मस्ती के साथ त्यौहार मनायें और मनाने दें। मानते हैं होली मौज मस्ती और उमंग से भरा त्यौहार है। लेकिन इसका मतलब यह तो नहीं कि हम अपने शिष्टता और संस्कारों को तिलांजलि देकर गाली गलौज या अश्लील गीत गाएं या बेशर्मी भरे हरकतें करें। प्रेम से मिलना और प्रसन्नता के गीत गाना कोई बुराई नहीं। ऐसा गीत गाना जिसे सुनकर लोग आपको अशिष्ट कहें ।कहां तक यह उचित है। मुहल्लों, स्कूलों, दफ्तरों में इस अवसर पर व्यंगात्मक उपाधि सूची निकालने की भी परंपरा है। इसमें सावधानी यह बरती जानी चाहिए कि हम किसी को ऐसी उपाधि तो नहीं दे रहे हैं। जो उसे मानसिक रूप से पीड़ित कर दें। हंसी मजाक में शुद्धता का बर्ताव पहली शर्त है। तभी हम अपने शिष्ट संस्कारों का निर्वाह करने में सफल होंगे। होली में रंग डालने के समय व स्थान का भी ध्यान रखना चाहिए। सड़क पर या छत पर या कहीं पर होने वाले हुड़दंग किसी भी बड़ी दुर्घटना को जन्म देकर प्रेम भरे परिवेश को विवाद के रूप में बदल देता है। इसलिए होली आमतौर पर घर के आंगन बाहरी बरामद हो एवं चबूतरो पर या अपने आसपास मोहल्ले के लोगों के बीच ही खेलना ज्यादा सुरक्षित और आनंददायक होता है। इस प्रकार होली पर अशिष्टता का नहीं शिष्टता का ध्यान रखा जाना अनिवार्य है। शिष्टता को हम वर्षभर निभाएं और होली पर भूल जाएं।यह तो कोई बात नहीं हुई ।शिष्टाचार की भूमिका होली पर पऔर भी अधिक महत्वपूर्ण हो जाती है। जब आप एक नहीं अनेक व्यक्तियों के संपर्क में आते हैं ।तो शिष्टता का ध्यान तो रखना ही पड़ेगा। होली में रंगों के लिए आप हल्के लाल ,गुलाबी ,पीले एवं नीले रंग का ही प्रयोग करें। गाढ़े रंग जहां फिजूलखर्ची हैं वही आपके और सामने वाले के शरीर के लिए हानिकारक भी हो सकते हैं। रंग वह हो जो आसानी से शरीर और कपड़ों में से उतर जाए। वह रंग किस काम का जो आजकल के महंगे कपड़ों से उतरते ही नहीं हो या शरीर के चमड़ी तक को साथ में उतार लें। या कट फट जाएं? इसलिए रंगों के चुनाव में भी शालीनता बरतीये। होली का समय भी निश्चित होना चाहिए! सुबह से शाम तक रंग का पानी शरीर पर पडते रहे तो या भीगे रहने से व्यक्ति के बीमार होने की पूरी गुंजाइश बनी रहती है। अतः जरूरी है कि इस बदलते मौसम में हम रंगों की तासीर के मुताबिक घंटे दो घंटे तक ही सीमित समय में रहकर होली खेलें। इससे समय के बचत के साथ दैनिक कार्यक्रमों को यथा समय पर पूरा कर पाएंगे। वहीं ठंडी जुकाम खांसी बुखार जैसी बीमारियों से भी बच सकेंगे। सारा दिन रंग लिए घूमना जहां बेवकूफी व अशिष्टता है वहीं रोगों के लिए भी खुला आमंत्रण है।इसी तरह होली का आनंद लेने का यह कोई ढ़ंग नहीं है कि आप अपने से बड़ी उम्र के व्यक्ति पर रंग डालें। हो सकता है वह आपको कोई ऐसे जवाब दे दें जो आपकी शिष्टता के लिए चुनौती बन जाए ।इसलिए अच्छा यही है कि रंग हम उन्हीं पर ही डालें जो हमारे समकक्ष और परीचित हों । कई बार हम बच्चों को उकसा कर हम किसी वृद्ध पर रंग डलवा कर हंसते हैं ।यह कोई शालीन कार्य नहीं है। होली पर हमें अपनी गरिमा व मर्यादा को स्मरण रखकर ही रंगों की बरसात करनी चाहिए। रंगों की मार से झुंझला कर सामने वाले व्यक्ति के कपड़े फाड़ें या उसे काटें नोंचे। यह भी अशिष्टता है ।आप भी उसे रंग लगाइए झुंझलाएं नहीं। ऐसे समय में शिष्टता की छाप आपके सदव्यवहार को सर्वत्र लोकप्रिय और चर्चा का विषय बना देगी। जिससे परोक्ष रूप से आपके अनेक लाभ होंगे। लोग आपके बारे में अनर्गल बातें नहीं करेंगे तथा पूरा सम्मान देंगे। आपके व्यवहार की गरिमा मर्यादा शिष्टता शालीनता और सुसंस्कृत व्यवहार होली पर आपके संपूर्ण व्यक्तित्व का सही आकलन करते हैं। इसके लिए आवश्यक है कि हम इन्हें ना भूलें ।वैसे भी अब तो महंगाई की मार ने रंगों की चटखती रंगत और चमक को कम कर रखा है। आज लोगों की मानसिकता बदल गई है भावनाएं बदल गए हैं। लोग यहां तक कहते हैं कि जमाना भी बदल गया। मगर वास्तविकता यह है कि हमारे त्यौहार नहीं बदले। आज भी होली का त्यौहार अपने मूल में पारस्परिक प्रेम स्नेह और भारतीय संस्कृति औरआपसी भाईचारे का प्रतीक है। त्यौहार नहीं बदले तो फिर हम क्यों बदल गए? उल्लास को कम क्यों कर दिया ?इसे बदलने की अनुभूति अनुमति कोई भी भारतीय त्योहार नहीं देते। फिर हम ऐसा क्यों नहीं कर सकते भारत वासियों की अस्मिता के अनुरूप जब तक हम समेक्य होकर एक दूसरे के कदम से कदम मिलाकर नहीं चलेंगे तब तक एकता के सूत्र _”हम सब एक हैं”! का जाप व्यर्थ है। हम बदलेंगे समाज बदलेगा हम सुधरेंगे तो समाज सुधरेगा। आइए इस मस्ती भरे और रंगारंग होली में शामिल होकर आपसी भेदभाव, रंगत, वेशभूषा, जात-पात, ऊंच-नीच भुलाकर एक-दूसरे के कपोलों पर स्नेह से गुलाल मलें, प्रेम से गले मिलें। मेरी यही अभिलाषा और आकांक्षा है। होली की आप सभी को बहुत-बहुत शुभकामनाएं और सभी देशवासियों को अभिनंदन वंदन।

“उड़त गुलाल लाल भय बादल के मन प्यारे रंग बनाएं

कै मन केसरी धोरी नौ मन प्यारे रंग बनाएं

दस मन केसरी धोरी

काहे की रे रंग बनाएं, काहे की पिचकारी केसर की रे रंग बनाएं

सोने की पिचकारी

भरी पिचकारी सम्मुख मारी भीगे गई सब सारी”। 

सुरेश सिंह बैस “शाश्वत”

2- 26 मार्च महादेवी वर्मा जयंती पर विशेष-

आधुनिक हिंदी साहित्य की महान विभूति महादेवी वर्मा

— सुरेश सिंह बैस “शाश्वत”

“हिन्दी के विशाल मंदिर की वीणापाणी,

स्फूर्ति-घेतना रचना की प्रतिभा कल्याणी”

कवि शिरोमणि निराला ने कभी महादेवी वर्मा कवयित्री के व्यक्तित्व को उक्त पंक्तियों से समझने की कोशिश की थी। एक जापानी कवि नागूची ने कहा था कि- “महादेवी प्रयाग की गंगा है।” आधुनिक हिन्दी साहित्य की जिन छह महान विभूतियों ने निर्विवाद रूप में अमरता प्राप्त कर ली है, उनमें महादेवी का स्थान विशिष्ट है। अन्य पांच विभूतियां हैं- भारतेंदू, मैथिलीशरण, जयशंकर प्रसाद, निराला और सुमित्रा नंदन पंत । महादेवी में छायावादी कविता को एक गति वेग दिया, उसकी श्रृंगार-भावना को सौम्य और सौदर्य चेतना को सूक्ष्म बनाया, कविता को अपनी सहसानुभुति संपन्न चित्रकला से एक अपूर्व रंजकता प्रदान की और हमें संस्कृत की समृ संस्कृति से अनुप्राणित कर एक समर्थ गद्य शैली दी। एक छावावादी कवयित्री के रूप में भी महादेवी वर्मा की अपनी मौलिकता है। उन्होंने दीपक, बादल, वीणा इत्यादि के बिंबों में सुनिश्चित अर्थ बता भरकर छायावादी कविता को एक प्रतीक पद्धति दी। तथा छायावादी वेदना-संसार को रहस्यवादी संकेतों से उदात्त बनाया। लेखनी के साथ तूलिका पर भी अधिकार रखने के कारण उन्होंने चित्रोपन बिंबों की एक अभिनव योजना से छायावादी काव्य संसार को रंगरूप मय बना दिया। कितना विशाल, कितना मूर्त, कितना क्रियाशील और कितना रंग-बोधमय है यह बिंब।

“अवनि अंबर की रुपहली सीप में तरल मोती सा जलधि जब कांपता तैरते घन मृदुल हिम के पुंज से ज्योत्सना के रजत पारावार में”

कवयित्री और चित्रकर्ती के दुर्लभ संयोग ने महादेवी वर्मा को आधुनिक हिन्दी साहित्य, भारतीय साहित्य तथा विश्व साहित्य के इतिहास में बहुत ऊंचे स्थान का अधिकारी बना दिया है। महादेवी ने चित्रकला की कोई विधिवत् शिक्षा प्राप्त नहीं की थी। बचपन में एक मराठी सज्जन ने उन्हें चित्रकला की प्रारंभिक बातें सीखी दी। महादेवी वर्मा का जन्म सन् 1907 में 26 मार्च को होली के दिन फरुखाबाद में हुआ था। शायद होली का ही असर था कि उनकी तूलिका हमेशा रंग बिरंगी रही। उनकी कविताओं में विषाद और आंसू की जैसी भी घनघटा है,। बातचीत के दौरान स्वजनों के साथ बहुत खुलकर हंसा करती थीं। और कभी-कभी अपने विनोदी स्वभाव का परिचय देने से न हीं चूकती थीं। महादेवी वर्मा के पिताश्री गोविंद प्रसाद वर्मा कालिजियेट स्कूल, भागलपुर में कई वर्षों तक हेडमास्टर रहे। महादेवी इसीलिये अक्सर भागलपुर आती रहती थी। लगातार कई दिनों तक रुका करती थीं, और कभी कभार उस स्कूल के छात्रों को पढ़ा भी दिया करती थीं। इसलिये कवयित्री के मन में और उनके भाव-जगत में बिहार प्रवास का संस्कार रचा-बसा हुआ था। उनके लिये बिहार घर-नैहर जैसा था। महादेवी केवल कवयित्री, चित्रकर्त्री और उत्कृष्ट गद्यलेखिका ही नहीं थीं। वे एक दार्शनिक भी थीं, संस्कृत भाषा-साहित्य की परम विदुषी थी। वक्तृत्व कला में निपुण थी, श्रंखला की कड़ियों को तोड़ने वाली एक विद्रोहिणी नारी थीं। स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने वाली अग्रणी महिला थी, शिक्षा शास्त्री थीं।. उन में संगठन करने का अद्भुत कौशल था। और एक छायावादी कवयित्री होकर भी वे अपने समय समाज, राष्ट्र और संपूर्ण मानवीय दायित्वों के प्रति अत्यधिक सजग थी।                                                         “चांदनी के देश जाने का, अभी ता मन नहीं है अश्रु- यह पानी नहीं है, यह व्यथा चंदन नहीं है।।”

किन्तु काल को कौन रोक सकता है कवयित्री की जिजीविषा भी काल को नहीं रोक सकी और बलशाली काल 11 सितंबर 1987 की काली रात में लगभग साढ़े नौ बजे अपना कवल निर्मम ग्रास से भर गया। महादेवी के निधन से हिन्दी साहित्य की अपूरणीय क्षति हो गई। मृत्यु जीवन की गति है और दुःख जीवन का सर्वाधिक व्यापक संगीत है। इसलिये मोह महादेवी वर्मा को कभी आच्छन्न नहीं कर सका। तभी तो तरुणाई के दिनों में हीं उन्होंने अनासक्त भाव से लिखा था।                 “विस्तृत नभ का कोई कोना, मेरा न कभी अपना होगा, परिचय इतना, इतिहास यही, उमड़ी कल थी, मिट आज चली…. ।। ” 

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