अम्बेडकरनगर। तेजी से बढ़ रही सफेदा (यूकलिप्टस) और लिस्पिट की खेती ने जहां किसानों को त्वरित मुनाफा दिया है, वहीं पर्यावरण के लिए यह नई चुनौती बनती जा रही है। पर्यावरणविदों और वन अधिकारियों का कहना है कि इन प्रजातियों के अत्यधिक रोपण से भूजल स्तर तेजी से नीचे जा रहा है, जैव विविधता पर खतरा मंडरा रहा है, और मिट्टी की उर्वरता में भी गिरावट दर्ज की जा रही है।
पानी की भारी खपत
सफेदा और लिस्पिट जैसे पेड़ बहुत तेजी से बढ़ते हैं, लेकिन ये दिन-रात भूजल का अत्यधिक दोहन करते हैं। पर्यावरण विशेषज्ञों का कहना है कि सफेदा का एक पेड़ प्रतिदिन करीब 90-100 लीटर तक पानी सोख सकता है। इससे खासकर सूखा प्रभावित क्षेत्रों में पानी की कमी और भी गंभीर हो जाती है।
जैव विविधता को खतरा
ये पेड़ स्थानीय प्रजातियों को पनपने नहीं देते। इनके पत्तों से निकलने वाले रसायन मिट्टी में मौजूद अन्य पौधों की वृद्धि को रोकते हैं। नतीजतन, पक्षियों, कीटों और अन्य जीवों का निवास प्रभावित होता है।
मिट्टी की उर्वरता पर असर
इन पेड़ों की पत्तियाँ और जड़ें मिट्टी में कोई विशेष पोषण नहीं देतीं। उल्टा, मिट्टी की नमी को कम कर देती हैं और अन्य फसलों के लिए भूमि अनुपयोगी बन सकती है।
स्थानीय प्रशासन की प्रतिक्रिया
वन विभाग ने हाल ही में इस मुद्दे पर एक सर्वेक्षण किया और रिपोर्ट में सुझाव दिया कि सफेदा और लिस्पिट की अनियंत्रित खेती पर रोक लगाई जाए। उत्तर प्रदेश सरकार ने भी इन प्रजातियों के स्थान पर स्थानीय व पर्यावरण के अनुकूल वृक्षों जैसे नीम, पीपल और बरगद को बढ़ावा देने की योजना पर काम शुरू किया है।
किसानों की दुविधा
वहीं, कई किसान कहते हैं कि सफेदा और लिस्पिट उन्हें कम समय में ज्यादा आमदनी देते हैं। सरकार से मांग की जा रही है कि अगर इन पर रोक लगाई जाए तो वैकल्पिक फसलों और वृक्षारोपण के लिए आर्थिक सहायता भी उपलब्ध कराई जाए।